“छठ पूजा” पूजा नहीं संस्कृति कि पहचान है

Shwetabh Singh
Shwetabh Singh
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श्वेताभ सिंह के कलम से…

मारे देश भारत में ना जाने ऐसे कई त्यौहार मनाए जाते है. जिसका अपना ही महत्व और मान है. पर जब बात “छठ पूजा”की होती है, तो सबके दिमाग में सिर्फ शारदा सिन्हा की आवाज सुनाई देती है और जुबान पर उसके गाने की बोल गाने लगते हैं.

चार दिनों तक चलने वाला यह व्रत न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि यह शुद्धता, सादगी, प्रकृति प्रेम और सामाजिक समरसता की एक अनूठी संस्कृति को भी दर्शाता है. यह महापर्व मात्र एक त्योहार नहीं, बल्कि इन क्षेत्रों की सांस्कृतिक पहचान बन चुका है.

छठ पूजा के लिए घर से दूर रहकर नौकरी करने वाले और पढ़ने वाले भी इस पर्व का इंतजार करते है जिससे साल भर छुट्टी ना लेकर दीपावली पर छुटी लेकर छठ पूजा मना सके.

घर गाँव वापस आ कर परिवार से मिलने की खुशी तो रहती ही है,साथ ही साथ बचपन के दोस्तों और रिश्तेदारों से भी मिलना हो जाता है.

जिस तरह से खरना के दिन गांव में प्रसाद (बखीर और रोटी ) घर- घर जा कर देना और आशीर्वाद लेनी की परंपरा है.

वही घर के लड़के या लड़की घाट या पोखरा पूजा के लिए जगह घाट छेकाई करने उत्सुकता रहती है.

 

प्रकृति की आराधना और गहन आस्था

छठ पूजा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह मूर्ति पूजा से हटकर सीधे प्रकृति की उपासना पर केंद्रित है. इस पर्व में उगते और डूबते सूर्य देव (जिन्हें प्रत्यक्ष देवता माना जाता है) और उनकी बहन छठी मैया (षष्ठी देवी) की पूजा की जाती है.

सूर्य देव: इन्हें ऊर्जा, जीवन और स्वास्थ्य का दाता माना जाता है. डूबते और उगते सूर्य को अर्घ्य देना इस बात का प्रतीक है कि जीवन में हर स्थिति – उदय या अस्त – में आभार व्यक्त करना चाहिए.

छठी मैया: इन्हें संतान की रक्षा और दीर्घायु के लिए पूजा जाता है.

कठोर नियम और पवित्रता का संकल्प

छठ के व्रत को दुनिया के सबसे कठिन व्रतों में से एक माना जाता है. व्रती (व्रत करने वाले) 36 घंटे का निर्जला (बिना पानी) उपवास रखते हैं. इस दौरान पवित्रता और स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है.

चार दिवसीय अनुष्ठान: नहाय-खाय से लेकर खरना, संध्या अर्घ्य और उषा अर्घ्य तक, हर चरण में सात्विकता और संयम का पालन किया जाता है.

बांस के सूप और दउरा: पूजा में इस्तेमाल होने वाले सभी प्रसाद और सामग्री बांस के बने सूप और टोकरी में रखे जाते हैं, जो ग्रामीण और सादी जीवनशैली की ओर इशारा करते हैं.

सामाजिक एकता का प्रतीक

यह पर्व जाति, धर्म और वर्ग के भेद को मिटाकर सामुदायिक एकता का शानदार उदाहरण पेश करता है. घाटों की सफाई से लेकर प्रसाद बनाने तक, समाज के सभी लोग एक साथ मिलकर इस अनुष्ठान को पूरा करते हैं.

सामूहिकता: नदी या जलाशय के तट पर हजारों व्रती एक साथ एकत्र होते हैं और कमर तक पानी में खड़े होकर अर्घ्य देते हैं, जो एक अद्भुत और भावुक दृश्य होता है.

लोकगीत: छठ के दौरान गाए जाने वाले पारंपरिक लोकगीत (जैसे ‘केलवा के पात पर’ और ‘मरबो रे सुगवा धनुष से’) भोजपुरी और मैथिली संस्कृति की समृद्ध विरासत को दर्शाते हैं.

आज छठ पूजा का विस्तार न केवल देश के महानगरों, बल्कि विदेशों (जैसे अमेरिका, कनाडा, लंदन) में भी हो चुका है, जहां प्रवासी भारतीय इसे पूरी श्रद्धा के साथ मनाते हैं. यह विस्तार इस बात का प्रमाण है कि छठ केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि एक सशक्त सांस्कृतिक पहचान है, जो अपनी जड़ों से जुड़ने और प्रकृति का सम्मान करने का संदेश देती है.

यह पर्व हमें सिखाता है कि सादगी और शुद्धि के माध्यम से हम प्रकृति और ईश्वर से गहरा संबंध स्थापित कर सकते हैं.

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