वाराणसी | हिंदी विभाग,बीएचयू के तत्वावधान में बिहार के पूर्व सांसद एवं लेखक शंकर दयाल सिंह की 84 वी जयंती पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के सभागार में स्मृति समारोह का आयोजन किया गया। ज्ञातव्य है कि शंकर दयालसिंह बीएचयू के हिंदी विभाग के ही छात्र रहे हैं।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कला संकाय प्रमुख प्रो. विजय बहादुर सिंह ने कहा कि डॉ. सिंह से निकटतम पारिवारिक संबंध रहा है। उनके व्यक्तित्व की सहजता प्रेरणा देती थी। उन्होंने कहा कि उनके लेखन में इतनी धार थी कि आपातकाल पर लिखी उनकी किताब की 3 लाख प्रतियां बिक गईं। उन्होंने बताया कि हिंदी विभाग में उन्होंने अपने निर्देशन में ‘साठोत्तरी हिंदी और शंकर दयाल सिंह’ विषय पर शोध करवाया है। इस अवसर पर प्रो. सिंह ने हिंदी में सर्वोच्च अंक पाने वाले विश्वविद्यालय के मेघावी छात्र को डॉ. शंकर दयाल सिंह स्मृति में मेडल देने का प्रस्ताव भी रखा जिसे उनकी पुत्री डॉ. रश्मि ने तुरंत स्वीकार कर लिया।
मुख्य वक्ता, बीएचयू के हिंदी विभाग के प्रोफेसर प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल ने इस अवसर पर शंकर दयाल सिंह को स्मरण करते हुए कहा कि यदि आज श्री सिंह जीवित होते तो 84 वर्ष के होते जो बहुत ज्यादा नहीं है। आज भी इस वय के कई साहित्यकार और राजनेता अपने कर्मक्षेत्र से सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं। उनसे जुड़े अपने संस्मरणों को सुनाते हुए प्रो. शुक्ल ने कहा कि इमरजेंसी, राजनीति और साहित्य पर लिखी उनकी कई किताबों को पढ़ते हुए ये बराबर महसूस होता है कि साहित्यिक सर्जनात्मकता और राजनीतिक संघर्षमूलकता से उनका व्यक्तिव निर्मित था। जब वे साहित्यिक मंचों से बोलते तो राजनीति की बात बिल्कुल नहीं करते थे। वे कहा करते थे कि मैं राजनीति से जुड़ा जरूर हूं लेकिन साहित्यिक अनुभूति ही मेरे व्यक्तिव के निर्माण में महत्त्वपूर्ण रही है। प्रो. शुक्ल ने कहा कि सेठ गोविंददास, रायकृष्णदास, हजारीप्रसाद द्विवेदी, फिराक गोरखपुरी, नज़ीर बनारसी से जुड़े उनके अनेक संस्मरण हैं जो उनकी साहित्यिक अभिरुचि का पता देते हैं। वे इमरजेंसी पर लिखी अपनी किताब में इंदिरा गांधी का मुखर विरोध करते हैं। राजभाषा को लेकर उनकी प्रतिबद्धता स्पष्ट है। अपने एक संस्मरण में उन्होंने नज़ीर और फिराक के बारे में रोचक किस्सा बयान करते हुए उन्हें सादर याद किया है। प्रो. शुक्ल ने आगे कहा कि डॉ. सिंह ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्होंने राजनीति के भीतर साहित्य की जगह तलाशी और उसे संवदेनशील बनाने की कोशिश की।
स्वागत वक्तव्य देते हुए शंकर दयाल सिंह की पुत्री और भारत सरकार में सचिव डॉ. रश्मि सिंह ने पिता को सादर स्मरण करते हुए कहा कि उनका व्यक्तिव अपनी माटी, अपने गांव के परिवेश के साथ ही विद्या के मंदिर काशी हिंदू विश्विद्यालय से निर्मित होता है। उनकी साहित्य की लालसा विद्या के इसी मंदिर में आकर अंकुरित हुई। डॉ. रश्मि ने कहा कि पिताजी को केवल एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक बहुआयामी व्यक्तिव के रूप में जाना है जिनमें सच्चाई, ईमानदारी, भावुकता और सेवाभाव गहरे अंतर्निहित है। पिताजी ने सिखाया कि सबको लेकर आगे बढ़ना है। डॉ. रश्मि ने कहा कि उनके कथनी और करनी में अंतर नहीं था। वे पर्यावरण और बालिका शिक्षा को लेकर बहुत गंभीर थे। उनके भीतर वसुधैव कुटुंबकम् की भावना थी।
इस अवसर पर प्रो. सदानंद साही ने कहा कि काशी हिंदू विश्विद्यालय से शिक्षित शंकर दयाल सिंह इस विश्वविद्यालय के ऐसे योग्य छात्र थे जिन्होंने अपने विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना मालवीय की बहुआयामित को सच्चे अर्थों में आत्मसात किया था।प्रो. साही ने आगे कहा कि डॉ. दयाल ऋषि परंपरा के लेखक थे जो सिर्फ देना जानता है लेना नहीं।
इस अवसर पर डॉ. कामेश्वर उपाध्याय, धर्मेंद्र सिंह, अशोक पांडे ने भी डॉ. सिंह से जुड़े अपने संस्मरण सुनाए। कार्यक्रम का संचालन डॉ. राम सुधार सिंह ने किया। उन्होंने उत्साही पाठकों के लिए डॉ. शंकर दयाल सिंह समग्र प्रकाशित होने की इच्छा जताई। आभार वक्तव्य बीएचयू ,प्राचीन इतिहास विभाग के डॉ. अशोक सिंह ने किया।